Tuesday, July 15, 2008

वादा

- 15 March, 2008
क रोज़ साकी ने, बड़े अदाकारी से -
उम्मींदों से मंझी इक धागे में,
खट्टे मीठे अल्फाजों से भरी,
ख़्वाबों का एक सुंदर सा हार गूंथा -
उसमें अश्कों के चंद बूँदें पिरोये,
और खुशियों की मोतिंयाँ भी जढ़ दी।

फ़िर, मेरे आगोश में आकर, बड़े प्यार से -
अपने नाज़ुक मखमली होंठो से चूम
नशीली निगाहों के चमकते पैमाने में -
वादों का इक जाम मुझे पिलाया, और बोली
"जानम मेरे, तुम अब और अकेले नही हो,
मैं जिंदगी भर तुम्हारे साथ रहूंगी"।

कुछ तो ढलते वक़्त का तक़ाज़ा था
और कुछ सिसकती तन्हाई का सूनापन -
जो मैं साकी के मादकता में मदहोश -
दिल में फ़िर से जीने की तमन्ना लिए
क्षितिज की ओर नज़र कर, अपने कश्ती को
मुहब्बत – ऐ- चौवाई में ले जा डाला।

वक़्त-दर्-वक़्त जो मैं गर्ख होता गया

गहराई के बढ़ते अन्धेरे में -
अचानक कुछ चमकते हुए
छोटे बड़े तारे नज़र आए।

कि उसके चेहरे की रौशनी से रोशन हो रहे थे
मेरे आखिरी साँसों से बन रहे वो बुलबुले -
तो समझा - जो वादा जिंदगी भर साथ निभाने का था
बद-बख्त जिंदगी - सिर्फ़ उसके साथ भर का बन गया।

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