- 14 October, 2006
जिंदगी को मुझसे आँख मिचौनी
खेलने की आदत सी पढ़ गयी है,
में भी जिद्द पे सवार, अपने सर पे
कफ़न बाँध, उसे ढूँढता रहता हूँ।
सोचता हूँ किसी न किसी रोज़ तो उसे
मेरे रूबरू आना ही पड़ेगा,
वरना मौत के साए क्या मुझसे इस
गम के अँधेरे में ही मिलेंगे?
जिंदगी - तुझे पाने की उम्मींद में
दर दर भटक रहा हूँ
बेखुदी में कभी खुद पे, तो कभी
गैरों पे बरस रहा हूँ।
उम्मींदों के उजाले में मिल
में भी ज़रा खुली आँखों से
तुझे भरपूर निहारूं -
आज तक, मैंने तो तेरी हर ख्वाहिश को
गले से लगाया है
क्या अब भी मैं तेरे
गले लगाने के काबिल नहीं हूँ?

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