Tuesday, July 15, 2008

अकेला

- 15 July, 2007

मैं ख़्वाबों के इस बस्ति में

तन्हाँ रहना चाहता हूँ

जिंदगी के इस कश्ती में

बा-अकेला रहना चाहता हूँ।


मिले हैं मुझे कदम-हर-कदम

कोई न कोई हम-सफर, हम-दम

मैं उनके उन झूठे वादों से

बहुत दूर रहना चाहता हूँ।


नादाँ-ऐ-दिल को मैं कर बे-आबरू

जब कभी भी गया मिलने उनसे

ऐसे ज़ख्म दिए उन्होंने कि

मैं अब ज़हर पीना चाहता हूँ।


मजबूर-ऐ-हालत अब तो

काबू-ऐ-शिकस्त न हो पाती

जाम-ऐ-मस्त इस शाम में

मैं खोया रहना चाहता हूँ।


1 comment:

Anonymous said...

har wada, sirf ek wada nahin hota...kuch bandhan eise bhi hote hain jo wada to nahin, par khwaab bhi nahin hai.

Beautiful Poem...Keep writting...You do have a gift. Treasure it.