- 15 July, 2007
मैं ख़्वाबों के इस बस्ति में
तन्हाँ रहना चाहता हूँ
जिंदगी के इस कश्ती में
बा-अकेला रहना चाहता हूँ।
मिले हैं मुझे कदम-हर-कदम
कोई न कोई हम-सफर, हम-दम
मैं उनके उन झूठे वादों से
बहुत दूर रहना चाहता हूँ।
नादाँ-ऐ-दिल को मैं कर बे-आबरू
जब कभी भी गया मिलने उनसे
ऐसे ज़ख्म दिए उन्होंने कि
मैं अब ज़हर पीना चाहता हूँ।
मजबूर-ऐ-हालत अब तो
काबू-ऐ-शिकस्त न हो पाती
जाम-ऐ-मस्त इस शाम में
मैं खोया रहना चाहता हूँ।

1 comment:
har wada, sirf ek wada nahin hota...kuch bandhan eise bhi hote hain jo wada to nahin, par khwaab bhi nahin hai.
Beautiful Poem...Keep writting...You do have a gift. Treasure it.
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